गाय और पृथ्वी
गोमाता समष्टि प्रकृति की पोषक है अर्थात् प्रकृति के आठों
अंगों को पोषण प्रदान करती है। ये आठ अंग हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु,
आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार। इन आठों अंगों की पोषक होने के कारण गाय
समष्टि प्रकृति की माता मानी जाती है। जो पोषण प्रदान करे वह माँ है। इस
दृष्टि से ‘गो’ प्रकृति की माता सिद्ध होती है। प्रकृति के प्रकाशक, सर्जक
तथा नियामक की सृष्टि रचना में गो एक दिव्य एवं महत्वपूर्ण प्राणी है।
जिसकी तुलना और किसी से नहीं हो सकती। क्योंकि मूल प्रकृति में भी समय-समय
पर आने वाली विकृतियों का शमन गोमाता के द्वारा होता है। प्रकृति के
सम्पूर्ण अंगों का संरक्षण-संवर्धन एवं पोषण गौ ही कर सकती है। कामधेनु
रूपा गो में जीवनी शक्ति-सृजन की अथाह क्षमता है। गाय गोबर से पृथ्वी को,
गोमूत्र से जल को श्वाँस से अग्नि को, प्राण शक्ति स्पन्दन से पवन को,
हुंकार से आकाश को, दूध-दही एवं घृत से मन-बुद्धि एवं चित्त को शुद्ध-बुद्ध
एवं सशक्त पोषण प्रदान करती है। गौमाता के प्रत्येक अन्तस्थ दिव्य
यन्त्रों का सम्बन्ध समष्टि प्रकृति से निरन्तर सजगता पूर्वक बना रहता है।
जिससे प्रकृति को सत्वमय जीवनी ऊर्जा मिलती रहती है। अतः गाय कई अर्थो में
समष्टि प्रकृति से भी बढ़कर है। जैसे ऊपर वर्णन हुआ है कि गाय प्रकृति के
आठों अंगों का पोषण करती है। इस अष्टांग प्रकृति से सम्पूर्ण चर-अचर
प्राणियों का निर्माण होता है। सूर्य से लेकर चींटी पर्यन्त सभी स्थूल,
सूक्ष्म शरीरों का अधिष्ठान ये आठ अंग ही है। अगर प्रकृति के इन आठ अंगो
में कोई विकृति आती है तो इसका प्रभाव समस्त शरीरधारी प्राणियों पर पड़ता
है। आठ तो क्या एक-एक भी समष्टि अंग की विकृति का परिणाम समस्त देहधारी
प्राणियों को भोगना ही पड़ता है। प्रकृति के इन आठो अंगों की विकृतियों को
मिटाने का उपाय गाय को छोड़कर दूसरा कोई भी नहीं दिखता है।
अष्टांग प्रकृति की विकृतियों को शमन करने में केवल गोमाता ही सक्षम है-
प्रकृति की विकृतियाँ से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की हानि तथा विकृतियों के
शमन से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को लाभ होता है। बिना किसी भेदभाव चराचर
प्राणियों का हित साधने वाली गाय सर्व-भूत प्राणियों की माँ हैं।
‘‘मातरःसर्वभूतानाम्’’ स्वभाव से ही समष्टि प्रकृति शुद्ध बुद्ध एवं सशक्त
है। परन्तु मानवीय प्रमाद से समष्टि प्रकृति में नाना प्रकार की विकृतियाँ
उत्पन्न हो जाती है, इन विकृतियों के परिणामस्वरूप सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में
विष निर्मित हो जाता है। यह विष प्राकृतिक आपदाओं के रूप में, मृत्यु के
रूप में, रोगों के रूप में, विनाशकारी अस्त्र-शस्त्रों के रूप में,
दुर्भावनाओं-दुर्विचारों-दुर्मान्यताओं आदि के रूप में प्रकट होकर परस्पर
संघर्ष, कलह एवं सर्व-विनाश का कारण बनता है। यह विष दुर्दमनीयं महाशक्ति
है। और ये शक्ति सामूहिक सर्व-विनाश का रूप कभी-कभी ले लेती है। ऐसे अमोघ
महाविनाषकारी विष का भी गव्य शमन करने में सक्षम है। पंचगव्य में विष को
अमृत के रूप में परिवर्तित करने की अथाह शक्ति है। गौमाता से प्राप्त
पंचगव्य का प्राकृत विज्ञानानुसार विनियोग करने से पृथ्वी, जल, अग्नि,
वायु, आकाश, मन, बुद्धि, एवं व्यक्तित्व में मिश्रित विनाशकारी विष का सर्व
शमन होकर वह अमृत के रूप में हो जाता है, परिणामस्वरूप समष्टि प्रकृति
संतुलित एवं सुव्यवस्थित रहती है।पोषण - वर्धक एवं उसके सत्व की संरक्षक
हैं-
गोमाता समष्टि प्रकृति की पोषक-वर्धक एवं उसके सत्व की संरक्षक है।
गोमाता द्वारा निष्पादित गोबर पृथ्वी को पोषण तो देता ही है, साथ ही मानवीय
भूल से पृथ्वी में जो विष निर्मित होता है, उसका शमन करके दुग्ध, अन्न,
औषध, फल आदि को अमृतमय बना देता है। जिसके आहार से मानव का तन-मन-मस्तिष्क
और प्राण सतोमय हो जाते हैं। क्योंकि मानव के गर्भ से लेकर सम्पूर्ण
व्यक्तित्व के निर्माण का मुख्य आधार पंचतत्व मिश्रित पृथ्वी है। सर्वप्रथम
रज और वीर्य, पृथ्वी तत्व का परिष्कृत रसायन हैं अथवा पृथ्वी का रुपान्तरण
हैं। जब पृथ्वी सात्विक जीवनी शक्तियुक्त होगी तो उसका सार रज-वीर्य भी
सत्वमय रहेगा, और इससे निर्मित मानव पिण्ड विकृतियाँ एवं विष से रहित
सात्विक प्राणों वाला होगा। जब गर्भ ही सात्विक होगा तो निश्चित रूप से
मानव निरोग, पवित्र एवं सुदृढ़ हो ही जाएगा। इसलिए पृथ्वीमाता के आहार हेतु
अधिकाधिक गोबर मिले तो उससे उत्पादित हव्य-कव्य तो सात्विक जीवनी शक्ति
युक्त होगा ही साथ ही पृथ्वी की उर्वरा शक्ति भी अक्षुण्ण बनी रहेगी।
वर्तमान समय में अधिक उत्पादन के लोभ में बहकर मानव जाति ने नाना प्रकार
के जहर पृथ्वी में डाल दिए है। परिणामस्वरूप भूमि विषैली हो गई है। उससे
उत्पादित अन्न, फल, औषधी, सब्जी, दालें आदि स्वाभाविक विषयुक्त हो गए है।
इस कारण मानव का शरीर गर्भ से ही विकृत हो जाता है। माँ के गर्भ में ही
रोगोत्पत्ति हो जाती है। जन्म लेने के बाद भी माँ के दूध से तथा अन्य आहार
से उसे जहर ही मिलता है। गर्भ में पड़े विष के बीज पोषण पाकर भयंकररूप से
तन-मन-मस्तिष्क और प्राणों को विकृत कर डालते है।
ता द्वारा प्रदत्त गोमय धरती का दिव्य रसायन है-
आज के मृत्युदायी रोगों, दुखदायी, दुर्भावनाओं एवं विनाशकारी विचारों का
कारण एकमात्र इस समय उत्पादित अपवित्र एवं विषैला आहार है। जितना जल्दी
मानव जाति इस भूल को मिटा देगी उतना शीघ्र ही मानव जाति का भाग्योदय होगा।
अन्यथा ब्रह्माण्ड में महान् विनाशकारी विष विश्व के समस्त देहधारी
प्राणियों के लिए अत्यंत दुखदायी नरक बनता जा रहा है। अतः आहार की गुणवत्ता
के लिए इस समय मानव जाति को गोमाता की शरण में जाना चाहिए। गोमय का प्रसाद
कर भूमि सात्विक उर्वरायुक्त बनाने का एकमात्र उपाय यही है।
एवं वाणी शोधक हो जाता है-
विश्व वंदनीय कामधेनु से प्राप्त गोमूत्र से तीनों प्रकार के जल का
शुद्धिकरण होता है। अर्थात् अन्तरिक्ष, पृथ्वी, तथा पाताल का जल गोमूत्र के
मिश्रण से रोगाणु रहित, स्वास्थ्य वर्धक एवं वाणी शोधक हो जाता है। एक
प्रसिद्ध लोकोक्ति के अनुसार ‘‘पाणी जैसी वाणी’’ अक्षरशः सत्य है। वाक् का
जल के साथ ऐक्य है। केवल वाक् ही नहीं जागतिक प्राणियों का सम्पूर्ण जीवन
ही जलाधीन है। जल के बिना पृथ्वी विधवा एवं बाँझ हो जाती है। जल ही जीवन
है। अतःजल की गुणवत्ता अनिवार्य है। जबकि वर्तामान में जलाभाव को मिटाने का
प्रयास एवं चिन्तन तो विश्वमानव कर रहा है परन्तु इसकी गुणवत्ता की ओर
ध्यान नहीं दिया जा रहा हैै। उल्टा उसको दिन-प्रतिदिन दूषित किया जा रहा
है। नाना प्रकार के विषैला रसायन, कीटनाशक तथा फर्टिलाईजर रूपी जहर तीनों
प्रकार के जल में घुल गया है। भूगर्भ के जल में जहर तथा अन्तरिक्ष के जल
में भी इस इस समय मानव जाति अपने हाथों से ही विष मिलाकर अपने ही सर्वनाश
को आमन्त्रित कर रही है। यह विषैला जल, चर-अचर प्राणियों के शरीर में
असाध्य रोगों को उत्पन्न कर रहा है। मानव जाति अगर इसी तरह रासायनिक
कीटनाषक एवं अन्य फर्टिलाईजरों आदि के जहरों को पानी में भूमि पर एवं
अन्तरिक्ष में घोलती रही तो समझो सर्वविनाश है। अतः आज विश्व मानव की प्रथम
आवश्यकता है जल शोधक की। जल को गुणवत्ता एवं सात्विक जीवनी शक्ति से युक्त
बनाने के लिए सर्व प्रथम विषैले रसायनों कीटनाशकों, तथा फर्टिलाईजरों के
उपयोग को बन्द किया जाए। पहले से मिश्रित विष को गोमूत्र के द्वारा शमन
किया जाए। गोमूत्र के माध्यम से ही रसायनों, कीटनाशको, फर्टिलाईजर का
विकल्प तैयार करके राष्ट्र को दिशा प्रदान की जा सकती है। जिससे समस्त
सृष्टि का उद्धार होगा। इसलिए विष्व के कर्णधारों को गोमाता की शरण जाना
चाहिए। वह समष्टि जल को स्वास्थ्यवर्धक, गुणवत्तायुक्त बनाने में पूर्ण
सक्षम है। संसार के वैज्ञानिकों, राष्ट्राध्यक्षों व समाज के प्रमुखों को
मिलकर विश्व जीवन की रक्षा के लिए इन परंपरागत उपायों का सहारा तत्काल लेना
चाहिए।हैं -
कल्याणकारी कपिला के प्रसाद से समष्टि अग्निमय विकारों का शमन सहज में
हो जाता है। वर्तमान में मानवीय मूर्खताओं ने इन्द्रिय आराम हेतु बेसमझ
उपायों का सहारा लेकर अग्नि को भी विकृत कर दिया है। पाताल समुद्र की
वाड़वानल अग्नि, अन्तरिक्ष की सूर्यस्वरूप अग्नि तथा पृथ्वी में मिश्रित
ऊर्जा अग्नि में इस समय नाना प्रकार की विकृतियाँ व्याप्त हो चुकी हैं।
परिणाम स्वरूप जल, थल, वायु ओज विहीन होते जा रहे हैं। इसका प्रभाव प्राणि
जगत में प्रत्यक्ष दिखता है। प्रकृति निर्मित चर-अचर प्राणियों के शरीरों
में प्राकृतिक नियमानुसार निर्धारित शक्तियाँ विकृत होकर नष्टप्राय होती जा
रही हैं।
उक्त नारकीय स्थिति से बचने के लिए एकमात्र उपाय है -गोमाता द्वारा छोड़ा
गया श्वाँस और गोमाता से प्राप्त प्रसाद गोघृत। अग्नि के सात्विक जीवन
पोषक-तत्व गोमाता की श्वाँस में अथाह मात्रा में हैं। गाय की अन्तरिक्ष में
छोड़ी गई श्वाँस से त्रिस्वरूप अग्नि को पोषक मिलता है। इसलिए अधिकाधिक
गोसंवर्धन कर पृथ्वी पर गो की संख्या बढ़ाकर उसकी सेवा-पूजा की जाए। जिससे
वह प्रसन्न हो। जब प्रसन्नचित गोवंश दिव्य जीवन युक्त श्वाँस को अन्तरिक्ष
में प्रसाद रूप में छोड़ेगा तो उससे त्रिलोकी का कल्याण सम्पादित होगा।
वर्तमान में अग्नि के अन्धाधुन्घ दुरूपयोग हेतु अग्नि के भयंकर विषों का
ईंधन बनाकर आहार में दिया जाता है। ऐसी विकृत अग्नि से अनेक स्थानों पर
प्रकोप हो जाते हैं। जिसका परिणाम असंख्य जन-धन हानि के रूप में हमारे
सामने उपस्थित है। समष्टि अग्नि देवता को वैज्ञानिक पद्धति से गोमाता की
सेवा पूजा से प्राप्त गोघृत को ईंधन के रूप में आहार दिया जाए। वर्तमान
विष्व की अग्नि आवश्यकता को देखते हुए उसके सदुपयोग हेतु उसको गोघृत कर
आहार प्रदान किया जावें। इसके लिए भारी मात्रा में गोघृत की आवश्यकता
पड़ेगी। इतना गोघृत प्राप्त करने के लिए विश्व मानव के सामने एक ही रास्ता
है। कि पृथ्वी पर मानवों की संख्या के बराबर गोवंश की संख्या अनिवार्य रूप
से हो। ऐसे सद्-उपायों के द्वारा तात्कालिक प्रयासों को प्राथमिकता दी जानी
चाहिए। संसार के लोग समझकर वैज्ञानिक मार्ग से गोसेवा, पूजा कर विष्व का
कल्याण साध सकते है।
7. समस्त जागतिक प्राणियों की वायु विकृति का गोमाता के प्राण स्पन्दन
तथा रोमकूपों सइन्द्रीयारामी मानव के अपराधों से समस्त वायु तत्व की
प्रकृति गति बाधित हो जाती है। ब्रह्माण्ड के सातों प्रकार के वायु
अपने-अपने प्राकृतिक नियमानुसार स्पन्दित होते है परन्तु विश्व मानव के
अविवेकपूर्वक तेजगति से विपरीत दिशा में भागने के असफल प्रयास से सप्तवायु
के स्पन्दन में अवरोध तथा विकृत पैदा हो जाती है। जिससे प्राकृतिक
नियमानुसार वायु के सृष्टि कार्य में बाधा उत्पन्न हो जाती है। जिसका
परिणाम अनिष्टकारी चक्रवात तथा असाघ्य वातजनक रोगों के रूप में है। मानव
जाति सहित समस्त जागतिक प्राणियों की ऐसी वायु विकृत का गोमाता के प्राण
स्पन्दन तथा रोमकूपों से निसृत जीवनी ऊर्जा से शमन हो जाता है। वर्तमान
विश्व मानव को यह लाभ गोवंश की अधिकाधिक संख्या में पृथ्वी पर उपस्थिति
बढ़ाकर उनकी सेवा-पूजा-आराधना के माध्यम से अवश्य प्राप्त करना चाहिए।
गोमाता अपनी हुंकार ध्वनि से प्राकृतिक नाद की विकृति तथा क्षोभ को
मिटाने में पूर्ण सक्षम इस पृथ्वी पर तथा अन्तरिक्ष में प्राकृतिक नाद ध्वनि
से विपरीत कोलाहल होने के कारण आकाश में भयंकर विष इससे उत्पन्न हो गया
हैं। इस कारण आकाशीय मर्यादा में बाधा पैदा हो गई है। इसका परिणाम यह हुआ
कि प्राकृत नाद क्षोभित हो गया और समष्टि वाक् विकृत हो गई। इससे नाना
प्रकार में उपद्रव जगत में होने लग गए। उक्त समस्या का निदान गोमाता के पास
है। गोमाता अपनी हुंकार ध्वनि से प्राकृतिक नाद की विकृति तथा क्षोभ को
मिटाने में पूर्ण सक्षम है। पृथ्वी के सिरमौर मानव जाति को यह लाभ गोमाता
की सेवा, पूजा, आराधना कर तत्काल प्राप्त करना चाहिए।
9. गोमाता से प्रसाद रूप में प्राप्त दूध,दही,घी क्रमश:
मन,बुद्धि,अहंकार में व्याप्त असाध्य रइस तरह समष्टि मन, बुद्धि, व
अहंकार की भयंकर विकृतियाँ तो आज स्वयं मानव जाति के लिए विनाश का विकराल
रूप धारण कर चुकी हैं। जिन्होंनेे मानवीय भावनाआंे, विचारों एवं मान्यताओं
में विघटनकारी विष घोल दिया है। जो मानवीय जगत के लिए असाघ्य महारोग के रूप
में प्रत्यक्ष हो चुका है। इसका उपचार कर्म, धर्म, अध्यात्म, आदि औषध से
दुष्कर हो गया है। ऐसे में शेष केवल एक उपाय रहा है, वह है केवल गोमाता के
प्रसाद रूप में प्राप्त दूध, दही, घी ये तीनों क्रमशः मन, बुद्धि, अहंकार
में व्याप्त असाध्य रोगों को मिटाने में पूर्ण सक्षम हैं। अतः विश्व मानव
को इस अमोघ साधन का सहारा अवश्य लेना चाहिए। पाठक महानुभाव अच्छी तरह समझ
गए होगें कि गाय और समष्टि प्रकृति-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश,मन,
बुद्धि, अहंकार के परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध होते हुए भी गाय प्रकृति
पोषक एवं रक्षक हैं ऐसी सर्वकल्याणकारी गोमाता तथा उनकी संतान का कोटिश:
वन्दन !!
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