भारतवर्ष में गौ संवर्धन

घरेलू पालतु गाय को संयुक्त राष्ट्र ने गरीबी उन्मूलन का सर्वोत्तम उपाय स्वीकार किया है। यह सोच हमारी भारतीय परम्परा के सर्वथा अनुरूप है। ग्रामीण गौ सम्पदा, पारिवारिक पोषण में सुधार व जैविक कृषि के फलस्वरूप समाज में स्वास्थ्य, समृद्धि के साथ समरसता भी उत्पन्न करती है।
गौ वंश के प्रति सम्पूर्ण भारत वर्ष में प्रेम, श्रद्धा भाव की एक सतत् उच्च परम्परा रही है। आधुनिक समाज विज्ञान ने भी यह पाया है कि जिस समाज में गोपालन होता है, वहां परस्पर मैत्री भाव अधिक पाया जाता है।
घरेलू गोपालन परम्परा का ह्रास गोचरों की निरंतर कमी के कारण सीमांत ग्रामीण परिवारों के लिए दूध न देने वाली गाभिन गौओं तथा बछड़ियों का पालना कठिन होता जाता है। गरीबी के चलते नवजात बछड़े-बछिया को अपनी माता का पेट भर दूध भी नहीं मिलता। अकबर बादशाह के समय के इतिहास से पता चलता है कि उन दिनों बीस-बीस सेर दूध देने वाली गाय एक सामान्य बात थी।
पिछले कितनी ही शताब्दियों से चले आ रहे गौ माता के कुपोषण के कारण भारतीय गौ के स्वास्थ्य और उत्पादन में भारी गिरावट आई है। कम दूध की उत्पादकता वाली गौ को कोई हिन्दू भी नहीं पालना चाहता। एक अनुसंधान के अनुसार गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में पशुपालन (गोपालन, भैंस पालन) का काम मुस्लिम समुदाय के लोग अधिक करते हैं। हिन्दू समुदाय के लोग तो दूध एकत्रित कर के वितरण व्यापार का काम अधिक करते हैं। गौमाता के प्रति ग्रामीण समाज में श्रद्धा भक्ति से सेवा भावना का लोप हो रहा है।
यदि गोहत्या भारत में बढ़ रही है तो उस का दायित्व भी हम हिन्दुओं पर आता है। परन्तु यह दशा बदली जा सकती है। आधुनिक तकनीकों द्वारा स्थानीय व सस्ते हरे चारे को गायों के लिए उपलब्ध कराया जाए। इससे गौ माता के स्वास्थ्य में सुधर आएगा जिससे दूध् की मात्रा बढ़ेगी। फलस्वरूप हिंदू समुदाय उसे उपयोगी मान उसका रक्षण करेगा। पंचगव्य, गोबर, गोमूत्र औषधि इत्यादि के उत्पादन से गौ माता की सेवा बड़े गोसदनों द्वारा ही सम्भव है।
जैविक कृषि के प्रचार-प्रशिक्षण का कार्य भी बड़ी गौशालाओं को करना होगा। तब जाकर हालात बदलेंगे। ग्रामीण गो सेवा संसाधान केन्द माडल एक ऐसा माडल है जिसको अपनाकर गौमाता की स्थिति में बदलाव किया जा सकता है।
ग्रामीण गो सेवा संसाधन केन्द्रों की प्रमुख गतिविधियां
1. क्षेत्र की शुष्क गौओं और बछड़ियों की देखभाल।
2. स्थानीय गायों के लिए प्रसूति के पूर्व और बाद में सेवाएं उपलब्ध कराना।
3. आधुनिक तकनीकी सहयोग से स्थानीय आधार पर सस्ते पौष्टिक हरे चारे के विकल्प स्थापित करना।
4. संबद्ध क्षेत्र के लिए गौ संवर्धन की सेवाएं उपलबध कराना।
5. स्थानीय गौओं के लिए चारण में व्यायाम और पौष्टिक हरे चारे व स्वच्छ जल की व्यवस्था उपलब्ध कराना।
6. अपनी गौओं को अपने साथ लाने वाली महिलाओं और युवाओं के लिए आधुनिक गोपालन, जैविक कृषि की विधियों का प्रशिक्षण देना।
7. महिलाओं के साथ आने वाले बच्चों के लिये एक विद्यालय, दोपहर का आहार, महिलाओं के लिए प्रौढ़ शिक्षा व्यवस्था।
8. आंगनबाड़ी और जच्चा-बच्चा योजना को जोड़ना।
इन केन्द्रों का विकास स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार बहुपयोगी केन्द्रों के रूप में किया जा सकता है। जहां स्थानीय महिलाएं अपने बच्चों के साथ अपनी गौओं को भी ला सकेंगी। युवा भी अपनी व पड़ोस की गौओं को चराने के साथ उत्तम गोपालन तकनीक सीख सकेंगे। ऐसा होने से ग्रामीण महिलाओं को अपने गौओं के लिए चारा, ईंधन के लिए कमर तोड़ मेहनत नहीं करनी होगी। गो सेवा के पुनीत कार्य के साथ उन्हें गौ सेवा सुधार प्रशिक्षण, जच्चा-बच्चा सुधार, बच्चों की शिक्षा संस्कार और आहार के भी लाभ होंगे।
इस प्रकार केन्द्रीय सर्व शिक्षा अभियान, ग्रामीण आंगन बाड़ी योजना, महिलाओं के स्वयं सहायता सहकारी समूह भी इन केन्द्रों से संचालित हो सकेंगे। युवाओं को ग्रामोपयोगी व्यवसायिक प्रशिक्षण उपलब्ध कराया जा सकेगा। वे जैविक कृषि, दुग्ध व्यापार, फल-सब्जी उत्पादन के नवीनतम तरीके सीखकर अपने गांव में ही आजीविका कमा सकेंगे, नगरों में पलायन नहीं करेंगे।
आवश्यक संसाधन :- सामान्यत: एक गो समूह में लगभग एक तिहाई गाय ही दुधारू होती है। बाकी दो तिहाई गौओं की देखभाल का विशेष प्रबन्ध आवश्यक होता है। एक ऐसे ग्रामीण क्षेत्र में जहां कुल मिला कर 500 गोवंश हैं, वैसे क्षेत्र में लगभग 300 क्षेत्र की उसरिया और बूढ़ी गौओं को केन्द्र में सम्भालने के लिए योजना बनानी होगी। क्षेत्र की सभी गौओं की पहचान और उनका विवरण रखने की व्यवस्था करनी होगी। आधुनिक  प्रणाली इस के लिए बहुत उपयोगी है। ऐसी योजना प्रथम पंचवर्षीय गोवंश सुधार के लिए 500 तक गोवंश वाले ग्रामीण क्षेत्रों के लिए बनाई भी गई थी परन्तु यह योजना प्रभावशाली नहीं हुई क्योंकि इसका स्वरूप सरकारी था।
भूमि:- दो से चार हेक्टेयर भूमि पर ऐसे केन्द्र स्थापित हो सकते हैं। सार्वजनिक क्षेत्र की मुक्त ऊसर अनुपयोगी भूमि पर यह केन्द्र स्थापित हो सकते हैं। इसके लिए कम से कम दस वर्ष के पट्टे पर ऐसी भूमि का आवंटन कराना होगा।
कार्यकारिणी- सभी केन्द्र सामाजिक स्थानीय नेतृत्व, स्वयंसेवी संस्थाओं के सहयोग से स्ववित्त पोषित इकाई के रूप में कार्य कर सकेंगी। क्षेत्रीय कृषि विकास विभाग, पशुपालन विभाग, प्रदेश के ज्ञान संस्थान, कृषि विद्यालय इत्यादि भी अपना सहयोग प्रदान करेंगे। प्रान्तीय विज्ञान प्राद्योगिक संस्थान भी इस सामाजिक कार्य योजना में सक्रिय होंगे।
आरंभ में कुछ स्थानों पर ऐसे केन्द्र स्थापित करके अनुभव ग्रहण करना होगा।
भारतीय गौओं की दुग्ध उत्पादकता में सुधार के उपाय
भारतीय नस्ल की गौओं में दूध की उत्पादकता में निरंतर होती भारी गिरावट का प्रमुख कारण अत्यंत गरीबी और ग्रामीण क्षेत्रों में संसाधनों की कमी है। निम्न बिंदुओं के माध्यम से इसे अच्छी तरह समझा जा सकता है-
1. चारागाह तो लगभग सब समाप्त हो गए हैं।
2. गौओं के आवास, स्वच्छ पेय जल, उपयुक्त आहार, स्वस्थ जलवायु, गर्मी-सर्दी के प्रभाव से बचाव के साधनों की जानकारी लोगों के पास नहीं है।
3. स्थानीय रूप से उपलब्ध गौ चिकित्सा सुविधाओं का अभाव है।
4. अन्त: प्रजनन के दुष्प्रभाव और अच्छे प्रजनन योग्य वृषभों का न होना भी एक कारण है।
6. गर्भिणी शुष्क गौओं के पोषण पर उचित ध्यान नहीं दिया जाता है।
7. प्रजनन के बाद गौ और नवजात की उचित देख-रेख नहीं हो पाती है।
9. गोसेवा के बारे में लोगों के पास आधुनिक जानकारी नहीं है।
उपरोक्त विषयों पर ध्यान देने से गाय की मात्र तीन पीढ़ियों में स्वास्थ्य और दुग्ध में उल्लेखनीय प्रगति पाई गई है।

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गो दुग्ध - एक अध्ययन

- डॉ. श्री कृष्ण मित्तल